एक मशहूर कहावत है कि यदि किसी देश का विनाश करना हो, तो ना तो किसी परमाणु बम की आवश्यकता है, और ना ही किसी मिसाइल की। बस उसके शिक्षा का स्तर गिरा दीजिए और उसके छात्रों को परीक्षा में नकल करने दीजिए, राष्ट्र अपने आप ही नष्ट हो जाएगा।
किसी भी समाज का आधारस्तंभ और भविष्य उसका युवा होता है। यदि यह युवा भटक जाए तो राष्ट्र अपना रास्ता खो देगा और अगर यही युवा अपनी ऊर्जा राष्ट्र निर्माण में लगा दे तो देश विश्व में अग्रणी बन जाएगा।
भारत वह राष्ट्र है जो अपने इतिहास में ऐसे स्थान पर है जहां विरले ही राष्ट्र पहुंचते हैं। आज हमारे देश में 60 करोड़ युवा हैं जो दुनिया में किसी भी राष्ट्र से अधिक है। भारत की औसत आयु 28 वर्ष है। इसकी तुलना में चीन और अमेरिका 38 वर्ष, जापान और जर्मनी 47 वर्ष और यूरोपियन यूनियन 43 वर्ष की औसत आयु रखता है। ऐसे युवा शक्ति रखने वाले देश के लिए यह अति-महत्वपूर्ण है वह इस बल को सही दिशा में ले जा जिससे कि वह एक महाशक्ति बन सके।
अब सवाल है कि भारत के युवा को वाकई एक राष्ट्र निर्माण की ऊर्जा कैसे बनाया जाए ? इसके लिए उनके और उनकी उत्सुकताओं को समझना इसके लिए आवश्यक है। हमें चार आयामों पर काम करना होगा।
सर्वप्रथम हमें युवाओं को जागरूक बनाना होगा। नागरिकता कानून में संशोधन के पश्चात विगत कुछ दिनों से चल रही राष्ट्रव्यापी अशांति इस बात को इंगित करती है कि हमें युवाओं से बेहतर और निर्बाध संवाद बनाना होगा, जिससे कि वह भ्रांति और अफवाहों से बचाये जा सके। राष्ट्र और नीति के बारे में ज्ञान सभी युवाओं तक सही भाषा और सही समय पर ले जाना आवश्यक है। सभी स्कूलों और कॉलेजों में राष्ट्र नीति को समझाने के लिए लघु पाठ्यक्रम उपलब्ध कराना आवश्यक है और इसके लिए हम ऑनलाइन संसाधनों का भी प्रयोग कर सकते हैं। छात्र चाहे किसी भी विषय के हो उन्हें राष्ट्र निर्माण और वर्तमान नीतियों के बारे में अवगत कराना होगा ताकि वह किसी भी बहकावे में ना आए।
इस सिलसिले का दूसरा अध्याय है संवेदना। भारत का युवा वैसे ही भारतीय संस्कृति का मौलिक स्तंभ – करुणा में पला-बढ़ा है। अब यह भी आवश्यक है की शिक्षा नीति में ही संवेदना को जागृत और दिशा देने वाले प्रैक्टिकल पाठ्यक्रम पर हम ध्यान दें . इसके लिए हमें युवाओं को सही आदर्श और सही नायकों को देना होगा। साथ ही साथ समाज के सबसे अविकसित और आर्थिक रूप से अशक्त हिस्सों से युवाओं को जोड़ना होगा जिससे कि वह अपने से कमजोर वर्गों के जीवन और उनकी समस्याओं को समझें और उस पर विचार करें। वह शिक्षा, जो ज्ञान को करुणा से ना जोड़ पाए, अर्थहीन है क्योंकि एक डिग्री का मकसद सिर्फ आय का स्रोत बनना नहीं जीवन की प्रेरणा बनना है।
तीसरा आयाम अनुशासन है।
युवा ऊर्जा से भरे होते हैं और उनके विचार क्रांतिकारी होते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। किंतु यह भी आवश्यक है की हम युवाओं में अनुशासन और धैर्य की भावनाओं की भी नींव रखें। इसके साथ युवाओं के अंदर स्वल्प व्ययिता को प्रेरित करें जिससे कि वह चारों तरफ से प्रचारित हो रहे भौतिकवाद के जाल में ना फंसे। आज सारा व्यवसाय समाज में एक इंस्टेंट ग्रिटिफिकेशन यानी तत्काल संतुष्टि के भावों को फैला रहा है और आय से पहले ही व्यय करके ईएमआई में चुकाने की एक नई व्यवस्था बन रहा है। हमने इस नई संस्कृति का दुष्परिणाम पश्चिमी राष्ट्रों में देखा है जहां 2009 में इसी कारणवश घोर आर्थिक मंदी आई थी। उदाहरण के लिए 2018 में अमेरिका में ७.५ लाख लोगों ने अपने को दिवालिया घोषित किया और इतने से एक बड़ा हिस्सा युवाओं का था। पश्चिमी देशों में महज 21 साल की उम्र में दिवालिया हो जाना, अब कोई आश्चर्य की बात नहीं माना जाता। हमें भारतीय संस्कृति के तहत जीवन की आदतों और व्यय के तरीकों में अनुशासन लाने का पाठ युवाओं को छोटी उम्र से ही पढ़ाना होगा। वर्तमान में चल रहे विरोधाभासी प्रदर्शन में जिस प्रकार से युवाओं को गुमराह किया गया है उससे हमें शिक्षा के बारे में कुछ बदलना होगा। हमें युवाओं को यह सिखाना होगा की किसी भी बात को बिना जांचे परखे ना तो उसे मानना चाहिए और ना ही दूसरों की राय तुरंत मानकर कोई कदम उठाना चाहिए।
चौथा अध्याय युवाओं को सेवा का अवसर देना है।
मैंने यह कई बार देखा है कि भारत के युवाओं को ऐसा लगता है की वह शक्तिहीन है और उनके आइडिया को कोई सुनना ही नहीं चाहता। ऐसे सभी युवा समाज और राष्ट्र के लिए कुछ करना चाहते हैं लेकिन उन्हें ऐसा करने के लिए कोई अवसर मौजूदा शिक्षा प्रणाली में नहीं मिल पाता। हमने एनएसएस और एनसीसी जैसे प्रयास तो किए किंतु आज के संदर्भ में यह जीर्ण हो चुके हैं। युवाओं को, टेक्नोलॉजी के इस दौर में, कुछ नई और आकर्षक व्यवस्था की जरूरत है। क्यों ना एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिससे वे अपनी शिक्षा के दौरान ही ऐसे प्रोजेक्ट पर काम कर सकें जोकि वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक हो और छात्रों द्वारा किया गया काम वाकई जमीन पर कुछ बदलाव ला सकें। आज छात्रों द्वारा किए गए प्रोजेक्ट या तो कागजों में रह जाते हैं या कोई मॉडल बनकर किसी कोने में पड़े रहते हैं। यह दशा युवाओं को सिर्फ यही दिखा पाती है कि शिक्षा के अंदर किए गए उनके द्वारा काम महज खानापूर्ति है और इसलिए वह प्रैक्टिकल काम में ज्यादा रुचि ही नहीं रखते। फिर जब उन्हें कोई यह बताता है की सड़क पर धरना प्रदर्शन करने से वह वाकई कोई बदलाव ला सकते हैं तो छात्र उस बहकावे में तुरंत आ जाते हैं। जिस बदलाव को उन्हें क्लास रूम के अंदर से लाना चाहिए था वह, उस बदलाव में हिस्सा बनने की चेष्टा लेकर, क्लास रूम के बाहर पहुंच जाते हैं। शिक्षा प्रणाली के ढांचे को बदलना होगा जिससे कि छात्रों के विचारों और उनके आईडिया को सम्मान, यथासंभव आर्थिक मदद और मनोबल मिले। हर एक छात्र अपनी डिग्री पर, अर्जित अंकों के साथ अपनी रिसर्च और प्रैक्टिकल से किए हुए वास्तविक बदलाव को भी लिखा देखना चाहेगा ।
भारत समय के उस मोड़ पर है जब हमें अपने युवाओं को एक सम्मानजनक अवसर देना होगा कि वह एक सृजनात्मक बदलाव का हिस्सा बने और अपनी ऊर्जा का सही प्रयोग करें। राष्ट्र निर्माण के लिए हमें युवाओं के प्रति अपने विचारों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है ।
As published in Amar Ujala (National Edition) on 25th December 2019.
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