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  • Writer's pictureSrijan Pal Singh

उच्च शिक्षा को विश्व स्तरीय बनाने का मुकाम

Updated: May 30, 2020

मई २०१९ में नवीन सरकार का गठन होते ही, पांच वर्षों से विलम्बित चल रही नयी शिक्षा नीति का ड्राफ्ट प्रस्तुत किया गया। चूँकि पिछली शिक्षा नीति ,लगभग तीन दशक पहले आयी थी, इसलिए यह नयी नीति भारत के ४०,००० कॉलेजों और उनमे पढ़ने वाले ३.५ करोड़ छात्रों इस नयी नीति से अपनी भविष्य को प्रभावित होते देखेंगे।

इस बात से शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा की भारत के शिक्षा स्तर में काफी सुधार की आवश्यकता है।  २०१९ में प्रकाशित टाइम्स ग्लोबल यूनिवर्सिटी रैंकिंग में भारत की तरफ से भारतीय विज्ञान संस्थान अव्वल रहा।  मगर इसकी भी वैश्विक रैंक २५१ से ३०० की श्रेणी में रही।  इसके मुकाबले स्विट्ज़रलैंड की श्रेष्ठ यूनिवर्सिटी ने ११वां, चीन की यूनिवर्सिटी ने २२वां ,सिंगापुर ने २३वां स्थान अर्जित किया।  पांच अलग अलग पैमानों पर आधारित इस परिणाम की तह तक जाएं तो भारतीय संस्थानों की सबसे कमज़ोर कड़ी “अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण” रहा।  यानी भारतीय शिक्षा को अंतर्राष्ट्रीय मूलधारा से जुड़ने की आवश्यकता है।  विश्व की सबसे बड़ी युवा महाशक्ति के लिए शिक्षण की यह स्थिति चिंताजनक विषय है।

नयी शिक्षा नीति २०१९ में उच्च शिक्षा पर काफी चर्चा और खर्चा का प्रावधान सुझाया गया है।  निम्न स्तर के सभी कॉलेजों को बंद करने और अच्छे कॉलेजों को विश्वविद्यालयों का दर्जा देने पर ज़ोर दिया गया है।  साथ-साथ ऐसी प्रणाली पर ज़ोर दिया गया है जिसमें बहुआयामी शिक्षा हो, ना कि सिर्फ एक-दो विषयों पर आधारित पाठ्यक्रम।

इस कदम का एक नतीजा यह भी निकलेगा की नयी शिक्षा नीति के तहत कई छोटे कॉलेज बंद होंगे।  अनुमान यह  है की उच्च शिक्षण संस्थाओं की संख्या  ४०,००० से घटकर लगभग १२,००० रह जायेगी।  संभावता है कि बंद होने वाली अधिकतर संस्थाए छोटे शहरों से होंगी।  शिक्षा के स्तर  में सुधार हेतु ये कदम आवयशक होगा परन्तु यह भी सुनिश्चित करना है की भारत के ग्रामीण क्षेत्र में भी उच्च शिक्षा के अवसर मिलते रहे।

इसके अलावा २१वी सदी के भारत को उच्च शिक्षा क्षेत्र  में बदलाव लाते हुए ३ और मुख्य बिंदुओं पर अवश्य धयान देना होगा।

एक महत्वपूर्ण  विषय है शिक्षकों की गुणवत्ता का।  इस बात में दो राय नहीं है की अधिकतर कॉलेजो में शिक्षकों का मनोबल  एवं उनकी ट्रेनिंग में कमी है। शिक्षण को दीर्घकालीन करियर के रूप में देखने वाले युवा शिक्षक कम ही है। इसके ऊपर कई प्राइवेट कॉलेजेस ऐसे हैं जिसमे शिक्षकों का आकलन उनकी शिक्षण गुणवत्ता से नहीं बल्कि इस बात से किया जाता हैं कि वह कितने नए छात्रों का कॉलेज में एडमिशन करवा पाए।  मौजूदा शिक्षण प्रणाली का उद्योग की आवश्यकताओं से दूरी एक चिंताजनक विषय है।  सर्वे कहते है की भारत में ८२ प्रतिशत इंजीनियर डिग्री के बाद टेक्निकल व्यवसाय के लिए तैयार नहीं होते और कई कंपनियां स्नातक युवाओं को पुनः एक साल उद्योग के लिए उपयोगी कोर्स करवाती है।  विश्व के उत्त्कृष्ट विश्वविद्यालयों में उद्योग जगत से विशेषज्ञों को अल्प अवधि के लिए शिक्षक बनाने का अवसर दिया जाता है।  इससे उद्योग जगत का नवीनतम ज्ञान युवाओं तक पहुँचता रहता है।  भारत में भी ऐसी व्यवस्था करने के बारे में विचार किया जाना आवश्यक हैं।

फिर विषय है शिक्षा और समाज निर्माण को साथ लाने का। ।  नयी शिक्षा नीति के तहत “नेशनल रिसर्च फाउंडेशन” का गठन होगा जो शोध के लिए विभिन्न ससंथाओं को अनुदान देगा।  ऐसी केंद्रीय शोध अनुदान प्रणाली में यह सुनिश्तित करना आवशयक   है सरकार द्वारा प्रायोजित शोध, स्थानीय  विषयों और चुनौतियों का समाधान निकालने में कारगर हो।  यह महत्वपूर्ण  है की भारत के विभिन्न भौगोलिक और आर्थिक क्षेत्रों के अवसरों को निरंतर एककत्रित करके उन्हें स्थानियों संस्थाओं को शोध हेतु बाँटा जाए।  इसलिए शोध का अनुदान केंद्रीय संस्थान तो करे , परन्तु सभी  राज्यों और ज़िलों को इन शोध कार्यों में हिस्सा हो , ये भी सुनिश्चित करना है।  उद्धरण के लिए आईआईटी – दिल्ली का कोई शोध दांतेवाड़ा को कैसे लाभ पहुचाये यह राष्ट्र निर्माण का महत्वपूर्ण सवाल हैं।

साथ ही साथ शोध की गुणवत्ता कौन निर्धारित करेगा यह एक बड़ा सवाल है।  इसका एक पैमाना शोध में आधारित पेटेंट है।  २०१७ में भारत में कुल ४६,००० पेटेंट का आवेदन हुआ जिसमे से महज १४,००० भारतीय व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा थे और बाकी दो-तिहाई दूसरे देशों के संस्थाओं के ।  इसी काल में चीन में लगभग १२। ५ लाख पेटेंटों का आवेदन हुआ जिसमे ११ लाख से अधिक खुद चीनियों द्वारा थे। जबकि अमरीका में २०१७ में  ६ लाख  पेटेंट आवेदित  किये गए ।  यह आकड़े  दर्शाते हैं की शोध में अधिक निवेश के साथ साथ यह भी आवश्यक है शोध से आने वाले परिणाम यानी की पेटेंट /आईपीआर कैसे बढ़ाया जाए ।  इससे शोध संस्थाओं की गुणवत्ता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाने में भी सहायता मिलेगी।

कुछ वर्ष पहले डॉ एपीजे अब्दुल कलम के साथ कार्य करते हुए मैंने हावर्ड यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में कुछ दिन गुजारे।  वहाँ अनेक विख्यात प्रोफेसर ने हमे अपनी-अपनी प्रयोगशालाएं  दिखाई।  हर प्रयोगशाला में दो तीन प्रमुख प्रोजेक्ट चल रहे थे जिनके  मुख्य धारा जीवन या उद्योग में उपयोग की व्यापक  संभावना थी।  अधिकतर   प्रोजेक्ट किसी छोटे बड़े उद्योग द्वारा सहप्रायोजित थे।  हर एक प्रोजेक्ट पर ८- १० छात्रों की टीम लगी थी।  यह टीम न सिर्फ विज्ञान और तकनीक के छात्रों से भरी थी बल्कि इसमें कला और विभिन्न समाज विज्ञान के छात्र भी बराबर हिस्सा ले रहे थे।  उन प्रोफेसर्स का मानना था की किसी भी परियोजना में तकनीकी रूप से सटीक होने के साथ उसे सामाजिक परिदृश्य में सुचारु रूप से ढालना भी आवश्यक है ।  सन २०१६ में मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ एडिनबर्घ के साथ मैंने मार्स मिशन इंडिया प्रोजेक्ट कि स्थापना  कि जिसमे  हर वर्ष लगभग 30 विशेषज्ञों को मंगल ग्रह पर  जीवन चलाने के लिए बनायी गयी एक प्रयोगशाला में कुछ दिनों के लिए ले जाय जाता हैं।  ये प्रयोगशाला ज़मीन कि सतह से २.५ किलोमीटर अंदर हैं और यहाँ  पर करोड़ो डॉलर के संयंत्र हैं।  सुनने में ये प्रोजेक्ट १०० फीसदी विज्ञान का लगता हैं।  लेकिन इसमें हर वर्ष जुड़ने वाली टीम में सिर्फ आधे ही वैज्ञानिक होते हैं, बाकी आधे लोग चित्रकार स्कूली शिक्षक, लेखक, फैशन डिज़ाइनर , आर्किटेक्ट और पाक शास्त्र विशेषज्ञ होते हैं।  ऐसा क्यों…? क्योकि मंगल ग्रह पर जीवन का मिशन पूरा करने के लिए वहाँ पर खाना उगाना, घर और कपड़े उपलब्ध कराना और आने वाली पीढ़ियों को मंगल ग्रह के बारे में ट्रेन करना उतना ही आवश्यक हैं जितना मंगल ग्रह कि वैज्ञानिक समझ रखना।  ऐसी “मिशन मोड ” शिक्षा और शोध प्रणाली कि भारत को आवयश्कता हैं।

भारत के वैदिक इतिहास में सत्यम शिवम् और सुंदरम का उल्लेख है।  इस सत्य यानी विज्ञान, शिवम् यानी संस्कार और सुंदरम यानी कला को हम शिक्षा की एक धागे में कैसे पिरोये ? यही २१वी सदी की महान भारत का आधार होगा और अच्छे नागरिको का स्तम्भ होगा।

As published in Amar Ujala on 31-07-2019.

Amar Ujala (National Edition) (31-07-2019)


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